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अगर आप पुरानी फ़िल्में देखते हैं…. तो आप ठीक सोच रहे हैं इस ब्लॉग का शीर्षक मैंने राजश्री प्रोडक्शन की, जीतेन्द्र अभिनीत फिल्म ” गीत गाया पत्थरों ने” की तर्ज़ पर ही रखा है. उस फिल्म में पत्थरों ने भले ही गीत ना गाया मगर मेरे कमरे के मच्छरों ने गीत गा गा कर मेरा जीना हराम रखा है. ये मौसम ही कुछ ऐसा खुशनुमा चल रहा है कि इस मौसम हर जीव कि उत्पादकता बढ़ गयी… हर जीव अपनी प्रजाति बढ़ाने में लगा है.. मनुष्य का हाल तो पूछिये ही मत हर शहर में भर- भर के शादियाँ हो रही है.. कमबख्त इन मच्छरों ने भी हिंदुस्तान की जनता से प्रतिस्पर्धा कर रखी है …सोच लिया इन मच्छरों ने पीछे छोड़ना है इस बार भारत की जनता को….
हाँ तो मैं बात कर रहा था इन मच्छरों की महान शास्त्रीय संगीत प्रतिभा की.. आप में से हर कोई जाने अनजाने में,.. या कहें अनचाहे ही इनके कंठ का मधुर संगीत अपने कानों में जरूर घोलता होगा… ” कूँ कूँ ….” जैसी ध्वनि……
मैं भी जब अपने कमरें में कोई किताब लेकर पढने बैठता हूँ तो समझिये की सब अपने प्यारे मच्छर भाई घेर के बैठ जाते हैं सब की रट है या कहें उनका नारा है कि पहले हम से गाना सुनिए फिर अपना थोड़ा सा खून दो फिर हम तुम्हे आज़ादी देंगे … वाह भाई ऐसा लगता ये मच्छर तो अपने नेताजी कि माफिक हो गए हैं… लेकिन क्या आपको नहीं लगता की आजकल के हमारे नेता भी कुछ ऐसे ही हैं ..मसलन उनका भी कुछ ऐसा कहना है( अपने मन ही मन) … “पहले हमारा गाना ( चुनावी सब्जबाग ) सुनिए फिर थोड़ा खून चूसने दीजिये फिर सोचते हैं तुम्हारी आज़ादी के बारें में”…… अन्ना जी इस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को ऐसे ही नहीं कहते है .. “आज़ादी की दूसरी लड़ाई” …
जब मैं यही सब बातें सोच रहा था तो अचानक एक मच्छर मेरे हाथ में बैठा ..मैं चुपचाप उसकी हरकतों का अवलोकन करता रहा… उसने पहले इधर उधर का मुआयना लिया अपनी सुरक्षा के बारे में सोच रहा था शायद ( कीमती जिंदगी) ….. फिर चुपचाप उसने अपनी सूंड नुमा चोंच मेरे कलाई के ऊपर एक रोयें के बगल में रख दी… फिर उसने हलके से ड्रिल करना शुरू किया ..मुझे हलकी खुजलीनुमा चुभन हुई… फिर धीरे से उसकी चोंच मेरे शरीर में प्रवेश कर गयी और उसने अपना टैंकर भरना शुरू कर दिया मुफ्त के माल से… फिर जब उसका टैकर भरने लगा तो पहले तो उसका टैंकर यानी पेट थोड़ा लाल फिर लाल काला दिखने लगा मेरे रक्त से… अब उसे उड़ने में थोड़ी दिक्कत होने लगी इस भरे टैंकर के साथ… लालच में टैंकर पूरा भर तो दिया ..मगर अब… मेरे दूसरे हाथ की एक चोट से टैंकर फट गया… मेरे हाथ खून से सन गए … ” खून से रंगे हाथ” … मासूम(?) प्राणी के खून से रंगे थे मेरे हाथ…..
वैसे मैं अपने कमरे में “मच्छर भगाओ” उपाय इस्तेमाल करता हूँ.. कभी कछुआ छाप ,कभी मार्टिन छाप अगरबत्ती …. या मच्छर दानी.. मगर कभी बहुत ही आलसी हो जाता हूँ… उसका फायदा उठाते हैं मच्छर….
वैसे ये मछर कभी मेरे दोस्त भी बन जाते है.. अगर मैं सो जाऊं तो वही अपनी प्यारी सी मधुर ध्वनि “कूँ ….” से उठा देते है ऐसा लगता है कह रहे हो ” उठो बेटा पढाई नहीं करनी क्या?”….
हाँ तो बात कर रहे थे खून चूसने की… अगर आम जीवन में अपनी लोगों की व्यथा सुनेंगे तो कोई कहेगा मेरा बॉस या मालिक मेरा खून चूसता है, कोई कहेगा मेरी पत्नी मेरा खून चूसती है, कोई कहेगा ये इन दुकानदारों ने लोगो का खून रखा है…….कोई कहेगा इन नेताओं ने देश का खून चूस रखा है… मगर इन खून चूसने वालों में सज़ा केवल मच्छर को ही मिलती है….
मच्छर पुराण को लेकर फिलहाल अभी इतना ही….
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